टूट कर बिखरने का डर है

Thursday, July 26, 2007

टूट कर बिखरने का डर है तो शीशे का महल बनाते क्यों हो
डरते हो जमीं पर चलते हुये तो इतनी ऊंचाई पर जाते क्यों हो

दिन में अगर मुझसे बिछुड कर चले जाते हो खुद कोसो दूर
रात को सपनों में आ-आ कर इशारों से मुझको बुलाते क्यों हो

जिन्दगी आसान बहुत है सांसों की रफ़्तार रुक जाने के बाद
मरने भी तो दो मुझको रोज एक नया ख्वाब दिखाते क्यों हो

किस्सा एक और टूटे हुये दिल का हो जायेगा सीने में दफ़न
नाजुक सा दिल है मेरा जानते हो फ़िर ठेस लगाते क्यों हो

मान कर बात इस दिल की गहरी चोट जिगर पर हमने खायी
इतना काफ़ी न था क्या, तोहमतें और हम पर लगाते क्यों हो


by
Mohinder ji

7 comments:

उन्मुक्त July 26, 2007 at 8:19 PM  

शायरी भी अच्छी है और हरे रंग के बांस के पेड़ - बहुत सुन्दर चिट्ठा है।

Devi Nangrani November 30, 2007 at 1:02 AM  

Waah itna sunder blog jahan ek se ek ache shayar mehfil sajaye baithe hain.

Mubaarak ho

Daad ke saath

Devi

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह April 26, 2009 at 11:11 PM  

beautiful blog with beautiful ghazals.
welcome and thanks
Dr.Bhoopendra

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह April 26, 2009 at 11:11 PM  

beautiful blog with beautiful ghazals.
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Dr.Bhoopendra

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह April 26, 2009 at 11:11 PM  

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Dr.Bhoopendra

डॉ.भूपेन्द्र कुमार सिंह April 26, 2009 at 11:11 PM  

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Dr.Bhoopendra

ravi January 13, 2010 at 1:03 PM  

tumhari shayeri mere dil ko chhukar nikarl gai,,,
jindagi bitai kuchh yaadon ke sahaare or kuchh ro kar gujar gai,,
duaye to or kartaa tumhare liye
pr jindagi hi dhoka dekar chali gai,,,,

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